ख्वाबों की दुनिया को जब जलते हुए देखा
हर ख्वाब को मैने तिल तिल मरते हुए देखा
हो गई आदत अब तो अंधेरों मे जीने की
मुहब्बत का सूरज भी ढलते हुए देखा
क्या पाया क्या खोया न पता दिल को मेरे यारों
खुद के अरमां को दफ़न जो करते हुए देखा
लाखों थे बहाए आँसू मेरे घाव पर जिसने
नफ़ज़-ए-वापसी मे उसको ही हंसते हुए देखा
बीतें कल की यादों से खुद को नहीं निकाला फिर
जब सच की कड्वाहट को बढ्ते हुए देखा
हालत देख मेरी अक्सर महफ़िल कहे मुझ से
क्या शब को सुबहा से कभी मिलते हुए देखा?
खुद का गम महफ़िल में मैने सुनाया तो
सब के हाथों को मैने मलते हुए देखा
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